ऋग्वेद की अंतर्वस्तु का अध्ययन और पड़ताल करने पर वैदिक जनों के मूल याने आद्यभौतिकवादी दृष्टिकोण पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है |अधिकांश ऋचाओं में लौकिक कामनाओं को केन्द्रीय महत्त्व मिला है |उनमें या तो वैदिक जनों की लौकिक आवश्यकताओं की पूर्ती के लिए की जाने वाली आनुष्ठानिक क्रियाओं का उल्लेख है या उन अवसरों पर गाये जाने वाले गानों का वर्णन है जिनकी विषयवस्तु उनकी प्रत्यक्ष आवश्यकताएं और भौतिक इच्छाएं हैं |चूँकि विचार मूलतः व्यवहार का उत्पाद है और जीवन की वास्तविक परिस्थितियां प्रत्येक युग में चिंतन की दिशा और दशा दोनों का निर्धारण और नियमन करती है इसलिए ऋग्वेद में परिलक्षित दृष्टिकोण वैदिक जनों की मूल विचारदृष्टि मालूम होती है ,जो स्पष्टतः आद्यभौतिकवादी दृष्टिकोण है |कालांतर में जीवन की परिस्थितियों में बदलाव आने पर वर्गीकृत समाज में स्वभावतः भाववादी दृष्टिकोण अधिक ग्राह्य माना गया जिसके कारण वैदिक जनों के सामूहिक जीवन में मौजूद आद्यभौतिकवादी दृष्टिकोण को भाववादी रहस्यात्मकता ने अतिच्छादित कर लिया और व्राह्मण काल आते -आते वह गौण होकर तिरोहित हो गया |
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