सोमवार, 12 सितंबर 2011

कंक्रीट के जंगल

कंक्रीट के जंगल उभरे ,बढ़ी यहाँ अनियंत्रित भीड़
बदन हुआ धरती का नंगा ,कहाँ बनायें पक्षी नीड़
चीरहरण होना धरती का हुई आज साधारण बात
अपनी वज्रदेह पर फिर भी सहती वह कितने संघात
इतने उत्पीड़न ;सहकर भी जो करती अनगिन उपकार
उसके ही सपूत उससे करते ऐसा गर्हित व्यवहार
दोहन पर ही हमने केवल केन्द्रित रखा समूचा ध्यान
जंगल कब से चीख रहे हैं ,कोई नहीं दे रहा कान
पर्यावरण ले रहा करवट ,पनघट का रूठा पानी
ऋतुएँ लगती हैं परदेशी ,जो कल तक थीं पहचानी
आँगन ,गली ,मोहल्ला ,क़स्बा सबने आज सवाल किया |
हरीभरी धरती का इतना बदतर क्यों कर हाल किया ||
श्रीश राकेश

शनिवार, 10 सितंबर 2011

धरती का बेटा

तुम साकार आस्था हो,अभिनंदनीय हो
धरती के बेटे किसान तुम वंदनीय हो/
बीज नहीं तुम खेतों में जीवन बोते हो
भैरव श्रम से कभी नहीं विचलित होते हो/
वज्र कठोर,पुष्प से कोमल हो स्वभाव से
हंसकर विष भी पी जाते हो सहज भाव से/
तुमने इस जग पर कितना उपकार किया है
बीहड़ बंजर धरती का श्रृंगार किया है/
हरियाली के स्वर में जब धरती गाती है
देख तुम्हारा सृजन प्रकृति भी इठलाती है/
अपर अन्नदाता का जिसको मिला मान है
निर्विवाद वह धरती का बेटा किसान है//
---------------------श्रीश राकेश 

शुक्रवार, 9 सितंबर 2011

जब बदला नहीं समाज

जब बदला नहीं समाज,राम की चरित कथाओं से /
बदलेगा फिर बोलो कैसे गीतों,कविताओं से   / /
जो गिरवी रखकर कलम ,जोड़ते दौलत से यारी/
वे खाक करेंगे आम आदमी की पहरेदारी  / /
जब तक शब्दों के साथ कर्म का योग नहीं होता/
थोथे शब्दों का तब तक कुछ उपयोग नहीं होता//            .
व्यवहारपूत हर शब्द मंत्र जैसा फल देता है /
इसलिए हमारा शास्त्र आचरण पर बल देता है//
जब शब्दों के अनुरूप व्यक्ति के कार्य नहीं होते/
उनके उपदेश आम जन को स्वीकार्य नहीं होते//
हल और कुदाल,हथोड़ों से लिखते हैं जो साहित्य/
उनमें होता अभिव्यक्त हमारे जीवन का लालित्य //
थोथी चर्चा,सेमिनारों से कुछ न प्राप्त होगा /
भैरव श्रम से ही दैन्य भारती का समाप्त होगा//
बदलेगा तभी समाज आचरण का प्राधान्य हो जब/
"श्रम जीवन का आधार बने"यह मूल्य मान्य हो तब//
---------------------श्रीश राकेश

गुरुवार, 8 सितंबर 2011

नंदन-वन

 नंदन-वन !
यों है कहने को नंदन वन
पल्लवित वृक्ष दो चार ,शेष 
भूखे नंगे बच्चों-से क्षुप |
श्रीहीन,दीन बालाओं-सी 
मुरझायीं बेलें भी हैं कुछ |
जिस ओर विहंग-दृष्टी डालो 
अधसूखे ठूंठ हजार खड़े |
उपवन, उद्यान कहो कुछ भी
दर्शन थोड़े,बस नाम बड़े |
यों है कहने को नंदन !
------श्रीश राकेश