सोमवार, 30 जुलाई 2018

वेदों की मूल अंतर्दृष्टि

ऋग्वेद की अंतर्वस्तु का अध्ययन और पड़ताल करने पर वैदिक जनों के मूल याने आद्यभौतिकवादी दृष्टिकोण पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है |अधिकांश ऋचाओं में लौकिक कामनाओं को केन्द्रीय महत्त्व मिला है |उनमें या तो वैदिक जनों की लौकिक आवश्यकताओं की पूर्ती के लिए की जाने वाली आनुष्ठानिक क्रियाओं का उल्लेख है या उन अवसरों पर गाये जाने वाले गानों का वर्णन है जिनकी विषयवस्तु उनकी प्रत्यक्ष आवश्यकताएं और भौतिक इच्छाएं हैं |चूँकि विचार मूलतः व्यवहार का उत्पाद है और जीवन की वास्तविक परिस्थितियां प्रत्येक युग में चिंतन की दिशा और दशा दोनों का निर्धारण और नियमन करती है इसलिए ऋग्वेद में परिलक्षित दृष्टिकोण वैदिक जनों की मूल विचारदृष्टि मालूम होती है ,जो स्पष्टतः आद्यभौतिकवादी दृष्टिकोण है |कालांतर में जीवन की परिस्थितियों में बदलाव आने पर वर्गीकृत समाज में स्वभावतः भाववादी दृष्टिकोण अधिक ग्राह्य माना गया जिसके कारण वैदिक जनों के सामूहिक जीवन में मौजूद आद्यभौतिकवादी दृष्टिकोण को भाववादी रहस्यात्मकता ने अतिच्छादित कर लिया और व्राह्मण काल आते -आते वह गौण होकर तिरोहित हो गया |

कर्म : जैन दृष्टि में

जैन मान्यता है कि मन ,वाणी और कर्म से की जाने वाली हर क्रिया से एक सूक्ष्म प्रभाव उत्पन्न होता है जिसकी'कर्म' संज्ञा है और इसका भौतिक अस्तित्व माना गया है लेकिन अत्यंत सूक्ष्म होने के कारण यह इन्द्रियगोचर नहीं होता |न दिखने के कारण इसे 'अदृष्ट 'की संज्ञा भी दी गयी है |जिस प्रकार क्रिया (व्यापार)'कर्म 'का आधार है ,उसी प्रकार 'कर्म' भी क्रिया का आधार है |'क्रिया' और 'कर्म' का यह चक्र अनवरत चलता रहता है |क्रिया और कर्म के बीच वीज -वृक्षवत सम्बन्ध माना गया है क्योंकि जिस प्रकार वीज से वृक्ष और वृक्ष से वीज उत्पन्न होते हैं उसी प्रकार 'क्रिया' से 'कर्म' नामक यह सूक्ष्म अदृश्य तत्व उत्पन्न होता है और यह 'कर्म' किसी अन्य 'क्रिया' का हेतु बनता है तथा जिस प्रकार वीज अनुकूल परिस्थितियों में अंकुरित होता है उसी प्रकार कर्म भी अनुकूल समय पर फलित होते हैं और क्रिया और तत्जनित सुख दुःख का हेतु बनते हैं |चूँकि वीज को भून देने से उसकी उत्पादकता नष्ट हो जाती है इसलिए 'कर्म' और वीज की इस समानता के आधार पर तपस्या द्वारा ,जिसका मूल अर्थ तपना या उष्णता के प्रति सहनशीलता विकसित करने के लिए किया जाने वाला अनुष्ठान है -से कर्म निष्फल और प्रभावहीन हो जाते हैं जिससे क्रिया और कर्म के इस चक्र का उच्छेद हो जाता है |क्रिया से कर्म और कर्म से क्रिया और सुख -दुःख के वेदन के चक्र का उच्छेद करने के लिए क्रिया से विरति को एकमात्र उपाय समझने के कारण जैन परंपरा में 'अक्रियावाद' का पुरस्करण देखने को मिलता है |निवृत्ति के अपने आत्यंतिक आग्रह के कारण जैन दृष्टि एक श्रमापसारी विचार- दृष्टि बन गयी है |

दर्शन का दिग्दर्शन

दर्शन या दर्शनशास्त्र से सामान्य तात्पर्य है -जीवन और जगत के मूल उत्स के बारे में सैद्धांतिक विमर्श | इस विमर्श में जीवन को उन्नत बनाने के उपाय खोजना भी शामिल है लेकिन प्रायः हमारा आग्रह जीवन के भौतिक पक्ष पर कम और उसके अपार्थिव और लोकोत्तर पक्ष पर ज्यादा रहा है |इस कारण दर्शनशास्त्र वास्तविक जीवन की समस्याओं का अध्ययन न कर काल्पनिक और अगोचर संसार के अध्ययन की ओर उन्मुख रहा है जो उचित नहीं है |दर्शन का मूल या बुनियादी प्रश्न यह है कि पदार्थ और चेतना में से प्राथमिक या मूल तत्व कौन-सा है ,जिससे जीवन का उद्भव हुआ या ये दोनों ही चरम वास्तविकताएं हैं जो जीवन के आधार घटक या उपादान हैं |जब हम पदार्थ और चेतना ,दोनों की चरम वास्तविकता होने की सम्भावना पर विचार करते हैं तो सहज ही यह प्रश्न उपस्थित होता है कि यदि पदार्थ और चेतना दोनों के संयोग से जीवन का उद्भव हुआ है और दोनों ही चरम वास्तविकताएं हैं तो इनको सार्वकालिक और सार्वत्रिक होना चाहिए और ये दोनों तत्व निखिल ब्रह्माण्ड में व्याप्त होने चाहिए लेकिन हमारे सौर मंडल में पृथ्वी के अतिरिक्त अन्य किसी भी ग्रह पर जीवन के अस्तित्व के प्राथमिक चिन्ह बहुत खोजने पर भी नहीं मिले हैं |इसके आलावा पृथ्वी पर भी जीवन की उपस्थिति और बहुलता सर्वत्र नहीं है ,जबकि पदार्थ तो इस पृथ्वी और निखिल ब्रह्माण्ड में सर्वत्र मौजूद है |तब क्या यह मानना चाहिए कि चेतन तत्व सर्वत्र व्याप्त नहीं है लेकिन ऐसा मानने पर उसकी चरम वास्तविकता वाली स्थिति खतरे में पड़ जाती है |यदि यह माने कि दोनों तत्व ब्रह्माण्ड में सर्वत्र विद्यमान हैं पर उनका संयोग किसी 'उत्प्रेरक 'की उपस्थिति में संभव होता है तो उस उत्प्रेरक को भी सर्वव्यापक होना चाहिए और यदि यह सम्भावना सत्य होती तो इस ब्रह्माण्ड में सर्वत्र या कम से कम निकट के किसी अन्य ग्रह ,उपग्रह पर जीवन के चिन्ह मिलने चाहिए थे लेकिन ऐसा भी नहीं है ,इसलिए इस सम्भावना को पूरी तरह खारिज करते हुए जब हम पदार्थ या चेतना में से किसी एक तत्व के प्राथमिक होने की अद्वैतवादी संकल्पना पर विचार करते हैं तो पाते हैं कि यदि चेतन तत्व से पदार्थ का विकास हुआ होता तो जहाँ पदार्थ है वहां जीवन भी अवश्य होना चाहिए लेकिन ऐसा नहीं है |इसलिए यह सम्भावना ही युक्तियुक्त लगती है कि पदार्थ के विकास की उच्चतर अवस्था में 'चेतना' नामक यह गुण विकसित या उत्पन्न हुआ है और इसीलिए चेतना की प्रखरता पदार्थ के विकास की उच्चतर अवस्था और उसकी जटिलता के परिमाण पर निर्भर करती है|यह निष्कर्ष ही भूतवाद की आधार भूमि है और इसके विपरीत जो चेतना को प्राथमिक मानते हैं ,वे भाववादी हैं ,जो यथार्थ की ओर से आँखें मूंदकर कल्पना- विलास में निमग्न रहते हैं |
श्रीश राकेश

यथार्थ- एक टिप्पणी

यथार्थ कृत्यात्मकता में निहित होता है |इसलिए उसे केवल क्रियात्मक रूप से जाना जा सकता है |हर वह तथ्य जो क्रियमाण या प्रवृत्तमान है ,यथार्थ है |यथार्थ का प्रकटीकरण गति या प्रवृत्ति के द्वारा होता है ,इसलिए गति या प्रवृत्ति यथार्थ के रूपाकार हैं |जो घटित हो रहा है ,वह यथार्थ है और जिसके घटित होने की संभाव्यता है ,वह संभावना है |यथार्थ अस्तित्वभूत होता है ,उसका अवबोधन इन्द्रियों के माध्यम से संभव है लेकिन संभावना परोक्ष और अनगढ़ होती है |यथार्थ एक साकार संभावना होती है जबकि संभावना एक गर्भित यथार्थ होता है ,जिसके अवतरण का न तो समय निशित होता है और न स्वयं अवतरण |
यथार्थ वह है जो अपने विद्यमान रूप में है और आदर्श वह है जो देश, काल और परिस्थिति के अनुसार वांछनीय और उचित है |इसलिए आदर्श हमेशा श्रेयस्कर होते हैं |कहना न होगा कि हमारा बल आदर्श के यथार्थीकरण पर होना चाहिए |
.....श्रीश राकेश

यज्ञ- एक टिप्पणी

यज्ञ को श्रीपाद अमृत डांगे वैदिक जनों के उत्पादन का सामूहिक ढंग मानते हैं जबकि देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय इसे सामूहिक उत्पादन का आनुष्ठानिक पक्ष मानना चाहते हैं लेकिन मेरे विचारानुसार यज्ञ वितरण का सामूहिक ढंग है |वर्गपूर्व समाज में कबीले के हर सदस्य द्वारा किये गए उपार्जन को कबीले की संपत्ति माना जाता था तथा व्यक्तिगत संपत्ति का कोई अस्तित्व नहीं था और कबीले की एकमात्र संपत्ति निर्वाह- द्रव्य या खाद्य पदार्थ हुआ करती थी |यज्ञ, कबीले के श्रम- सक्षम सदस्यों द्वारा किये गए उपार्जनों का कबीले के सभी सदस्यों में यथायोग्य वितरण का एक सामूहिक ढंग है और संभवतः इस अवसर पर होने वाला कोई अनुष्ठान या कर्मकांड भी |यज्ञ के निमित्त आने वाली सामग्री को 'साकल्य' कहने के पीछे भी यही भाव-व्यंजना मालूम होती है|
...........श्रीश राकेश

अनेकांत- एक टिप्पणी

हर वस्तु अपनी संरचना में जटिल और संश्लिष्ट होती है क्योंकि उसके अनेक पक्ष और आयाम होते हैं |चूँकि हमारी दृष्टि और भाषा दोनों की एक सीमा है इसलिए एक समय में हम किसी वस्तु का एक ही आयाम या पक्ष ग्रहण कर पाते हैं क्योंकि जब हम उसका एक आयाम पकड़ते हैं तो दूसरा छूट जाता है और दूसरा पकड़ने पर पहला छिटक जाता है ,फलतः उसे समग्र रूप से एक साथ एक समय में ग्रहण कर पाना संभव नहीं होता |इसलिए एक आयाम या पक्ष पर आधारित अर्थ-निरूपण हमेशा अपूर्ण और एकांगी होता है |यह एकांगी निरूपण ही एकांत कहलाता है क्योंकि किसी वस्तु का उसके द्रष्टा ने जो पक्ष देखा या जाना होता है उसी का वह निरूपण करता है जो प्रायः भिन्न-भिन्न होता है और उस वस्तु के खंडित स्वरूप का निदर्शन कराता है |यह एकांत निरूपण ही विरोधों को जन्म देता है जो अनेक विग्रहों का कारण बनता है |इसीलिए विरोधों का शमन करने और वस्तु स्वरूप के सम्यक निदर्शन के लिए जैन मनीषियों ने अनेकांत का प्ररूपण किया |अनेकांत की अवधारणा समग्रता की अवधारणा है जो असीम सत्य के सीमित व सापेक्ष दृष्टि से किये गए निरूपणों के संश्लेषण का तार्किक फलन है ||