दर्शन या दर्शनशास्त्र से सामान्य तात्पर्य है ,जीवन और जगत के मूल उत्स के बारे में सैद्धांतिक विमर्श |इस विमर्श में जीवन को उन्नत बनाने के उपाय खोजना भी शामिल है |लेकिन प्रायः हमारा आग्रह जीवन के भौतिक पक्ष पर कम और उसके अपार्थिव और लोकोत्तर पक्ष पर ज्यादा रहा है |इस कारण दर्शनशास्त्र वास्तविक जीवन की समस्याओं का अध्ययन न कर काल्पनिक और अगोचर संसार के अध्ययन की ओर उन्मुख रहा है ,जो विचलन है |दर्शन का मूल या बुनियादी प्रश्न यह है कि चेतना और पदार्थ में से प्राथमिक या मूल तत्व कौन-सा है ?जिससे जीवन का उद्भव हुआ या ये दोनों ही चरम वास्तविकताएं हैं ,जो जीवन के आधार-घटक या उपादान हैं |
जब हम चेतना और पदार्थ ,दोनों के चरम वास्तविकता होने की संभावना पर विचार करते हैं तो सहज ही यह प्रश्न उपस्थित होता है कि यदि चेतना और पदार्थ दोनों के संयोग से जीवन का उद्भव हुआ है तो इनको सार्वत्रिक और सार्वकालिक होना चाहिए और ये दोनों तत्व निखिल ब्रह्मांड में व्याप्त होने चाहिए| लेकिन हमारे सौर मंडल में पृथ्वी के अतिरिक्त अन्य किसी भी ग्रह पर जीवन के प्राथमिक चिन्ह बहुत खोजने पर भी नहीं मिले |इसके आलावा पृथ्वी पर भी जीवन की उपस्थिति और बहुलता सर्वत्र नहीं है ,जबकि पदार्थ तो इस पृथ्वी और अखिल ब्रह्मांड में सर्वत्र है |तब क्या यह मानना चाहिए कि चेतन तत्व सर्वत्र व्याप्त नहीं है |लेकिन ऐसा मानने पर उसकी चरम वास्तविकता वाली स्थिति खतरे में पड़ जाती है |
यदि हम यह मानें कि दोनों तत्व ब्रह्मांड में सर्वत्र विद्यमान हैं पर उनका संयोग किसी 'उत्प्रेरक'की उपस्थिति में होता है तो उस 'उत्प्रेरक'को भी सर्वव्यापी होना चाहिए |इस सम्भावना के सत्य होने पर इस ब्रह्मांड में सर्वत्र या कम-से-कम निकट किसी अन्य ग्रह या उपग्रह पर तो जीवन के कोई चिन्ह मिलने चाहिए थे ?लेकिन ऐसा नहीं है |इसलिए इस सम्भावना को ख़ारिज करते हुए जब हम चेतना और पदार्थ में से किसी एक तत्व के प्राथमिक होने की अद्वैतवादी संकल्पना पर विचार करते हैं तो पाते हैं कि यदि चेतन तत्व से पदार्थ का विकास हुआ होता तो जहाँ पदार्थ है वहां जीवन भी अवश्य होना चाहिए ,लेकिन ऐसा नहीं है |इसलिए यह सम्भावना ही युक्तियुक्त लगती है कि पदार्थ के विकास की उच्चतर अवस्था में चेतना नामक यह अद्भुत गुण विकसित या उत्पन्न हुआ है और इसीलिए चेतना की प्रखरता ,पदार्थ के विकास की उच्चतर अवस्था और उसकी जटिलता के परिमाण पर निर्भर करती है और उसकी अनुलोमानुपाती है |यह निष्कर्ष ही भौतिकवाद की आधार- भूमि है और इसके विपरीत जो चेतना को प्राथमिक मानते हैं ,वे भाववादी हैं जो यथार्थ की ओर से आँखें मूंदकर कल्पना विलास में निमग्न रहते हैं |
भौतिकवाद का उच्चतर रूप हमें द्वंद्ववाद में देखने को मिलता है |द्वंद्ववाद की मूलभूत प्रस्थापना है कि भौतिक जगत और जीवन के विकास का प्राथमिक कारण प्रतिलोमों के बीच मौजूद अंतर्विरोधात्मक साहचर्य है ,जो किसी भी भौतिक इकाई की अंतःक्रियाशीलता का आधार है |द्वंद्ववाद यूरोपीय दर्शनशास्त्र में तर्कना की एक पद्धति के रूप में स्थापित हुआ |हेगेल ने इस दर्शन को अपनी तार्किक पूर्णता पर पहुँचाया और उसे प्रतिष्ठा दिलाई |लेकिन भाववाद के बीहड़ों में भटक कर वह अपनी प्रासंगिकता खो बैठा |मार्क्स ने इस विसंगति को समझा और उसका वस्तुगत ढंग से विवेचन और अनुशीलन किया |मार्क्स का यह अनुशीलन ही वैज्ञानिक द्वंद्ववाद अथवा द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के नाम से विश्रुत हुआ |द्वंद्ववाद के रूप में मानवजाति को विश्व के रूपांतरण का एक प्रभावकारी उपकरण प्राप्त हुआ है |
..............श्रीश राकेश
जब हम चेतना और पदार्थ ,दोनों के चरम वास्तविकता होने की संभावना पर विचार करते हैं तो सहज ही यह प्रश्न उपस्थित होता है कि यदि चेतना और पदार्थ दोनों के संयोग से जीवन का उद्भव हुआ है तो इनको सार्वत्रिक और सार्वकालिक होना चाहिए और ये दोनों तत्व निखिल ब्रह्मांड में व्याप्त होने चाहिए| लेकिन हमारे सौर मंडल में पृथ्वी के अतिरिक्त अन्य किसी भी ग्रह पर जीवन के प्राथमिक चिन्ह बहुत खोजने पर भी नहीं मिले |इसके आलावा पृथ्वी पर भी जीवन की उपस्थिति और बहुलता सर्वत्र नहीं है ,जबकि पदार्थ तो इस पृथ्वी और अखिल ब्रह्मांड में सर्वत्र है |तब क्या यह मानना चाहिए कि चेतन तत्व सर्वत्र व्याप्त नहीं है |लेकिन ऐसा मानने पर उसकी चरम वास्तविकता वाली स्थिति खतरे में पड़ जाती है |
यदि हम यह मानें कि दोनों तत्व ब्रह्मांड में सर्वत्र विद्यमान हैं पर उनका संयोग किसी 'उत्प्रेरक'की उपस्थिति में होता है तो उस 'उत्प्रेरक'को भी सर्वव्यापी होना चाहिए |इस सम्भावना के सत्य होने पर इस ब्रह्मांड में सर्वत्र या कम-से-कम निकट किसी अन्य ग्रह या उपग्रह पर तो जीवन के कोई चिन्ह मिलने चाहिए थे ?लेकिन ऐसा नहीं है |इसलिए इस सम्भावना को ख़ारिज करते हुए जब हम चेतना और पदार्थ में से किसी एक तत्व के प्राथमिक होने की अद्वैतवादी संकल्पना पर विचार करते हैं तो पाते हैं कि यदि चेतन तत्व से पदार्थ का विकास हुआ होता तो जहाँ पदार्थ है वहां जीवन भी अवश्य होना चाहिए ,लेकिन ऐसा नहीं है |इसलिए यह सम्भावना ही युक्तियुक्त लगती है कि पदार्थ के विकास की उच्चतर अवस्था में चेतना नामक यह अद्भुत गुण विकसित या उत्पन्न हुआ है और इसीलिए चेतना की प्रखरता ,पदार्थ के विकास की उच्चतर अवस्था और उसकी जटिलता के परिमाण पर निर्भर करती है और उसकी अनुलोमानुपाती है |यह निष्कर्ष ही भौतिकवाद की आधार- भूमि है और इसके विपरीत जो चेतना को प्राथमिक मानते हैं ,वे भाववादी हैं जो यथार्थ की ओर से आँखें मूंदकर कल्पना विलास में निमग्न रहते हैं |
भौतिकवाद का उच्चतर रूप हमें द्वंद्ववाद में देखने को मिलता है |द्वंद्ववाद की मूलभूत प्रस्थापना है कि भौतिक जगत और जीवन के विकास का प्राथमिक कारण प्रतिलोमों के बीच मौजूद अंतर्विरोधात्मक साहचर्य है ,जो किसी भी भौतिक इकाई की अंतःक्रियाशीलता का आधार है |द्वंद्ववाद यूरोपीय दर्शनशास्त्र में तर्कना की एक पद्धति के रूप में स्थापित हुआ |हेगेल ने इस दर्शन को अपनी तार्किक पूर्णता पर पहुँचाया और उसे प्रतिष्ठा दिलाई |लेकिन भाववाद के बीहड़ों में भटक कर वह अपनी प्रासंगिकता खो बैठा |मार्क्स ने इस विसंगति को समझा और उसका वस्तुगत ढंग से विवेचन और अनुशीलन किया |मार्क्स का यह अनुशीलन ही वैज्ञानिक द्वंद्ववाद अथवा द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के नाम से विश्रुत हुआ |द्वंद्ववाद के रूप में मानवजाति को विश्व के रूपांतरण का एक प्रभावकारी उपकरण प्राप्त हुआ है |
..............श्रीश राकेश
ब्रह्मांड की अधिकतर समस्याएं हमारी आंतरिक अज्ञानता का नतीज़ा हैं। स्वाभाविक ही,दर्शनशास्त्री भीतरी दुनिया के परिष्कार पर केंद्रित रहे हैं।
जवाब देंहटाएंयह सृष्टि सहयोग से है,द्वंद्व से नहीं। इसलिए,मार्क्स के चक्कर में न पड़ें।