जैन मान्यता है कि मन ,वाणी और कर्म से की जाने वाली हर क्रिया से एक सूक्ष्म प्रभाव उत्पन्न होता है जिसकी'कर्म' संज्ञा है और इसका भौतिक अस्तित्व माना गया है लेकिन अत्यंत सूक्ष्म होने के कारण यह इन्द्रियगोचर नहीं होता |न दिखने के कारण इसे 'अदृष्ट 'की संज्ञा भी दी गयी है |जिस प्रकार क्रिया (व्यापार)'कर्म 'का आधार है ,उसी प्रकार 'कर्म' भी क्रिया का आधार है |'क्रिया' और 'कर्म' का यह चक्र अनवरत चलता रहता है |क्रिया और कर्म के बीच वीज -वृक्षवत सम्बन्ध माना गया है क्योंकि जिस प्रकार वीज से वृक्ष और वृक्ष से वीज उत्पन्न होते हैं उसी प्रकार 'क्रिया' से 'कर्म' नामक यह सूक्ष्म अदृश्य तत्व उत्पन्न होता है और यह 'कर्म' किसी अन्य 'क्रिया' का हेतु बनता है तथा जिस प्रकार वीज अनुकूल परिस्थितियों में अंकुरित होता है उसी प्रकार कर्म भी अनुकूल समय पर फलित होते हैं और क्रिया और तत्जनित सुख दुःख का हेतु बनते हैं |चूँकि वीज को भून देने से उसकी उत्पादकता नष्ट हो जाती है इसलिए 'कर्म' और वीज की इस समानता के आधार पर तपस्या द्वारा ,जिसका मूल अर्थ तपना या उष्णता के प्रति सहनशीलता विकसित करने के लिए किया जाने वाला अनुष्ठान है -से कर्म निष्फल और प्रभावहीन हो जाते हैं जिससे क्रिया और कर्म के इस चक्र का उच्छेद हो जाता है |क्रिया से कर्म और कर्म से क्रिया और सुख -दुःख के वेदन के चक्र का उच्छेद करने के लिए क्रिया से विरति को एकमात्र उपाय समझने के कारण जैन परंपरा में 'अक्रियावाद' का पुरस्करण देखने को मिलता है |निवृत्ति के अपने आत्यंतिक आग्रह के कारण जैन दृष्टि एक श्रमापसारी विचार- दृष्टि बन गयी है |
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