सोमवार, 12 दिसंबर 2011

दर्शनशास्त्र : एक दृष्टिपात

दर्शन या दर्शनशास्त्र से सामान्य तात्पर्य है ,जीवन और जगत के मूल उत्स के बारे में सैद्धांतिक विमर्श |इस विमर्श में जीवन को उन्नत बनाने के उपाय खोजना भी शामिल है |लेकिन प्रायः हमारा आग्रह जीवन के भौतिक पक्ष पर कम और उसके अपार्थिव और लोकोत्तर पक्ष पर ज्यादा रहा है |इस कारण दर्शनशास्त्र वास्तविक जीवन की समस्याओं का अध्ययन न कर काल्पनिक और अगोचर संसार के अध्ययन की ओर उन्मुख रहा है ,जो विचलन है |दर्शन का मूल या बुनियादी प्रश्न यह है कि चेतना और पदार्थ में से प्राथमिक या मूल तत्व कौन-सा है ?जिससे जीवन का उद्भव हुआ या ये दोनों ही चरम वास्तविकताएं हैं ,जो जीवन के आधार-घटक या उपादान हैं |
        जब हम चेतना और पदार्थ ,दोनों के चरम वास्तविकता होने की संभावना पर विचार करते हैं तो सहज ही यह प्रश्न उपस्थित होता है कि यदि चेतना और पदार्थ दोनों के संयोग से जीवन का उद्भव हुआ है तो इनको सार्वत्रिक और सार्वकालिक होना चाहिए और ये दोनों तत्व निखिल ब्रह्मांड में व्याप्त होने चाहिए| लेकिन हमारे सौर मंडल में पृथ्वी के अतिरिक्त अन्य किसी भी ग्रह पर जीवन के प्राथमिक चिन्ह बहुत खोजने पर भी नहीं मिले |इसके आलावा पृथ्वी पर भी जीवन की उपस्थिति और बहुलता सर्वत्र नहीं है ,जबकि पदार्थ तो इस पृथ्वी और अखिल ब्रह्मांड में सर्वत्र है |तब क्या यह मानना चाहिए कि चेतन तत्व सर्वत्र व्याप्त नहीं है |लेकिन ऐसा मानने पर उसकी चरम वास्तविकता वाली स्थिति खतरे में पड़ जाती है |
         यदि हम यह मानें कि दोनों तत्व ब्रह्मांड में सर्वत्र विद्यमान हैं पर उनका संयोग किसी 'उत्प्रेरक'की उपस्थिति में होता है तो उस 'उत्प्रेरक'को भी सर्वव्यापी होना चाहिए |इस सम्भावना के सत्य होने पर इस ब्रह्मांड में सर्वत्र या कम-से-कम निकट  किसी अन्य ग्रह या उपग्रह पर तो जीवन के कोई चिन्ह मिलने चाहिए थे ?लेकिन ऐसा नहीं है |इसलिए इस सम्भावना को ख़ारिज करते हुए जब हम चेतना और पदार्थ में से किसी एक तत्व के प्राथमिक होने की अद्वैतवादी संकल्पना पर विचार करते हैं तो पाते हैं कि यदि चेतन तत्व से पदार्थ का विकास हुआ होता तो जहाँ पदार्थ है वहां जीवन भी अवश्य होना चाहिए ,लेकिन ऐसा नहीं है |इसलिए यह सम्भावना ही युक्तियुक्त लगती है कि पदार्थ के विकास की उच्चतर अवस्था में चेतना नामक यह अद्भुत गुण विकसित या उत्पन्न हुआ है और इसीलिए चेतना की प्रखरता ,पदार्थ के विकास की उच्चतर अवस्था और उसकी जटिलता के परिमाण पर निर्भर करती है और उसकी अनुलोमानुपाती है |यह निष्कर्ष ही भौतिकवाद की आधार- भूमि है और इसके विपरीत जो चेतना को प्राथमिक मानते हैं ,वे भाववादी हैं जो यथार्थ की ओर से आँखें मूंदकर कल्पना विलास में निमग्न रहते हैं |
       भौतिकवाद का उच्चतर रूप हमें द्वंद्ववाद में देखने को मिलता है |द्वंद्ववाद की मूलभूत प्रस्थापना है कि भौतिक जगत और जीवन के विकास का प्राथमिक कारण प्रतिलोमों के बीच मौजूद अंतर्विरोधात्मक साहचर्य है ,जो किसी भी भौतिक इकाई की अंतःक्रियाशीलता का आधार है |द्वंद्ववाद यूरोपीय दर्शनशास्त्र में तर्कना की एक पद्धति के रूप में स्थापित हुआ |हेगेल ने इस दर्शन को अपनी तार्किक पूर्णता पर पहुँचाया और उसे प्रतिष्ठा दिलाई |लेकिन भाववाद के बीहड़ों में भटक कर वह अपनी प्रासंगिकता खो बैठा |मार्क्स ने इस विसंगति को समझा और उसका वस्तुगत ढंग से विवेचन और अनुशीलन किया |मार्क्स का यह अनुशीलन ही वैज्ञानिक द्वंद्ववाद अथवा द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के नाम से विश्रुत हुआ |द्वंद्ववाद के रूप में मानवजाति को विश्व के रूपांतरण का एक प्रभावकारी उपकरण प्राप्त हुआ है |
              ..............श्रीश राकेश 

शनिवार, 10 दिसंबर 2011

कृष्ण और कंस का संघर्ष

कृष्ण भारतीय पुराकथाओं के एक विशिष्ट नायक हैं |कृष्ण और कंस के संघर्ष की कथा सबको विदित ही है |इस संघर्ष की महागाथा को सात्विक और तामसिक वृत्तियों के संघर्ष के रूप में चित्रित किया जाता है |किन्तु मेरे विचारानुसार कृष्ण और कंस मातृसत्ता और पितृसत्ता के प्रतिनिधि हैं और उनके बीच का संघर्ष वस्तुतः मातृसत्ता और पितृसत्ता के बीच का संघर्ष है |मातृसत्ताक समूहों में उत्तराधिकार पुत्र को न मिलकर पुत्री के पुत्र या बहिन के पुत्र को मिलता है |कई जनजातियों में यह परंपरा देखने को मिलती है |देवकी चूँकि कंस की चचेरी बहिन थी इसलिए कंस उत्तराधिकार छिन जाने की आशंका से देवकी के होने वाले पुत्र से भयभीत था |कंस का काल कदाचित मातृसत्ता के पितृसत्ता में संक्रमण का काल रहा है |लेकिन जनसाधारण के मन में मातृसत्ता के प्रति गहरे पैठे आग्रह के चलते राजा कंस को अपने  प्रजाजनों और कुछ सामंतों के प्रतिरोध की आशंका रही होगी ,एतदर्थ कंस देवकी के कथित जीवित बचे पुत्र की षडयंत्रपूर्वक हत्या कर अपना मार्ग निष्कंटक कर लेना चाहता था |मथुरावासियों को जब देवकी के पुत्र के जीवित होने के विषय में विदित हुआ होगा तो मातृसत्ता के प्रति अपने पारंपरिक व्यामोह और आग्रह के कारण मथुरा का जनमत कंस के विरुद्ध हो गया और उन्होंने परम्पराद्रोही कंस का वध कर सिंहासन पर उसके वास्तविक उत्तराधिकारी को बैठाया ||
                 ..............श्रीश राकेश 

गुरुवार, 8 दिसंबर 2011

आत्मावलंबन

व्यक्ति जन्म से लेकर मृत्यु तक ,बचपन से लेकर बुढ़ापे तक पराश्रित रहता है और यह परावलंबन उसके स्वभाव में गहरे पैठ जाता है |बचपन में तो वह अपने माता-पिता और परिजनों के आश्रय में रहता है और किशोरावस्था में अपने बाल- सखाओं और मित्रों के सानिध्य में रहता है |युवावस्था में जब वह गृहस्थाश्रम में प्रवेश करता है तो जीवन-संगिनी के रेशमी आँचल की छाँव में विश्रांति का अनुभव करता है |वृद्धावस्था में जब वह अशक्त हो जाता है तो अपनी संतानों के प्रश्रय में रहता है और उन पर अवलंबित रहता है |लेकिन जब ये सभी जन उससे विमुख हो जाते हैं तो उसे सारे लौकिक रिश्ते-नाते और सहारे झूठे लगने लगते हैं और वह किसी अचीन्ही लोकोत्तर सत्ता की  ओर उन्मुख होता है और उसके सानिध्य में संबल और त्राण खोजता है |इस तरह वह शुरू से अंत तक परावलंबन में जकड़ा परजीवी और परमुखापेक्षी बना रहता है |यदि व्यक्ति का आत्मबल जाग्रत हो जाये तो उसे किसी बाह्य और वायवी सहारे की आवश्यकता ही नहीं होगी ||
        .......श्रीश राकेश 

सोमवार, 5 दिसंबर 2011

वृद्ध -मनोविज्ञान

बूढ़े लोग सामान्यतः अनुवभ-दम्भी होते हैं |अपने जीवन भर के संचित अनुभवों की गठरी का भारी बोझ अकेले ढोना उनके लिए कष्टदायक होता है इसलिए वे इष्ट जनों के साथ अपने इन अनुभवों को बाँट कर सहनीय सीमा तक हल्का कर लेना चाहते हैं |इस मामले में उनकी सबसे ज्यादा अपेक्षा परिजनों से होती है लेकिन पीढ़ी-अंतराल के कारण सोच में आये बदलाव की वजह से युवा पीढ़ी बुजुर्गों के उन अनुभवों को अपने लिए अनुपयोगी और व्यर्थ मानती है इसलिए वे 'कालबाह्य 'अनुभव उन्हें सहज स्वीकार नहीं होते लेकिन युवा परिजनों के इस उपेक्षापूर्ण व्यवहार से बूढ़े-बुजुर्ग लोग स्वयं को बहुत अपमानित समझते हैं |क्योंकि बुढ़ापे के कारण शरीर जीर्ण होने से जहाँ एक ओर उनकी शारीरिक अक्षमता बढ़ती है वहीँ उनके अनुभवों को खारिज कर दिए जाने से उन्हें अपनी मानसिक योग्यता पर भी प्रश्न-चिन्ह लगा दिखाई देता है ,मानो उन्होंने अपने जीवन को पूर्णता के साथ नहीं जिया |इसके अलावा बूढ़े लोगों में प्राधिकार की भावना भी प्रबल होती है इसलिए उनमें अपने इष्ट जनों पर अधिकार जताने और उन्हें शासित करने की ललक होती है लेकिन स्वछंद युवा मन बूढ़े-बुजुर्ग की इस चेष्टा को अपने निजी जीवन में अनावश्यक हस्तक्षेप मानते हैं और उनके प्राधिकार को व्यावहारिक मान्यता नहीं देते| जिससे दोनों पीढ़ियों के बीच विरोध और कटुता बढ़ती है और उनके बीच सामंजस्य टूट जाता है |लेकिन यदि दोनों पक्ष स्थिति का यथार्थ और वस्तुपरक आकलन करें और प्रगतिशील सोच रखें तो इस तनाव या टकराव को सुरक्षित सीमा तक कम किया या टाला जा सकता है |
                   ------  श्रीश राकेश