बूढ़े लोग सामान्यतः अनुवभ-दम्भी होते हैं |अपने जीवन भर के संचित अनुभवों की गठरी का भारी बोझ अकेले ढोना उनके लिए कष्टदायक होता है इसलिए वे इष्ट जनों के साथ अपने इन अनुभवों को बाँट कर सहनीय सीमा तक हल्का कर लेना चाहते हैं |इस मामले में उनकी सबसे ज्यादा अपेक्षा परिजनों से होती है लेकिन पीढ़ी-अंतराल के कारण सोच में आये बदलाव की वजह से युवा पीढ़ी बुजुर्गों के उन अनुभवों को अपने लिए अनुपयोगी और व्यर्थ मानती है इसलिए वे 'कालबाह्य 'अनुभव उन्हें सहज स्वीकार नहीं होते लेकिन युवा परिजनों के इस उपेक्षापूर्ण व्यवहार से बूढ़े-बुजुर्ग लोग स्वयं को बहुत अपमानित समझते हैं |क्योंकि बुढ़ापे के कारण शरीर जीर्ण होने से जहाँ एक ओर उनकी शारीरिक अक्षमता बढ़ती है वहीँ उनके अनुभवों को खारिज कर दिए जाने से उन्हें अपनी मानसिक योग्यता पर भी प्रश्न-चिन्ह लगा दिखाई देता है ,मानो उन्होंने अपने जीवन को पूर्णता के साथ नहीं जिया |इसके अलावा बूढ़े लोगों में प्राधिकार की भावना भी प्रबल होती है इसलिए उनमें अपने इष्ट जनों पर अधिकार जताने और उन्हें शासित करने की ललक होती है लेकिन स्वछंद युवा मन बूढ़े-बुजुर्ग की इस चेष्टा को अपने निजी जीवन में अनावश्यक हस्तक्षेप मानते हैं और उनके प्राधिकार को व्यावहारिक मान्यता नहीं देते| जिससे दोनों पीढ़ियों के बीच विरोध और कटुता बढ़ती है और उनके बीच सामंजस्य टूट जाता है |लेकिन यदि दोनों पक्ष स्थिति का यथार्थ और वस्तुपरक आकलन करें और प्रगतिशील सोच रखें तो इस तनाव या टकराव को सुरक्षित सीमा तक कम किया या टाला जा सकता है |
------ श्रीश राकेश
------ श्रीश राकेश
सही ॥आपकी बातों से पूर्णतः सहमत हूँ विचारणीय आलेख समय मिले कभी तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है
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