शनिवार, 6 नवंबर 2010

यक्ष-प्रश्न

मैं तुम से तुम्हारा धर्म नहीं पूछूँगा ,
जाति भी नहीं ,यह भी नहीं की तुम
वामपंथी हो या दक्षिणपंथी या सनातनी
संत,    महंत  या   फिर  मठाधीश
पर यह तो कहो कि कैसे इतने सहज ,अतिमानवीय ,
निष्काम ,निर्लिप्त ,निर्विकार ,निष्पक्ष और भव्य बन पाए तुम ?
मैं तुम से यह नहीं कहूँगा कि मेरी मति ,समझ ,जीवन के मूल्य
तुम्हारे मूल्यों से श्रेष्ठ हैं और यह भी नहीं कि तुम्हारे हेय हैं ,
पर महामना सच -सच कहो कि क्या तुम्हारा आचरण ,तुम्हारी
समझ का संश्लेषित रूपांतरण है या ठीक उसके विपरीत
तुम्हारी समझ ,मीमांसा ,प्रस्थापना ,अवधारणाओं का खंडन /
मैं यह भी नहीं पूछूँगा कि तुम शिक्षक ,पत्रकार ,वैज्ञानिक ,राजनीतिज्ञ हो ,
पर मेरे प्रियमित्र ,सहस्राव्दियों का यह द्वैत समझ ,आचरण के बीच
कितने विरोधी ,एक- दुसरे को निषेधित करने वाले खानों में बाँट गया है मानवता को
देश, धर्म ,संस्कृति ,नस्लों ,जातियों के नाम पर /
सच क्या तुमको वास्तव में इसका अहसास नहीं होता
कि धीरे- धीरे सहस्राव्दियों से जीवन मूल्यों की कथनी- करनी का यह द्वैत
सुरसा कि तरह लील रहा है मानवीय संवेदनाओं को /
सच कहो क्या तुमको खुद की रक्ताल्पता ,रुग्णता ,जर्जरता ,शनैः- शनैः
खुद के अन्दर मरते हुए आदमी की वेदना का अहसास नहीं होता ?
हैवानियत में डूब कर भी आदमी होने की लीला कैसे कर लेतो हो लीलाधारी ???
             -----श्यामबिहारी पराशर ,ग्वालियर .
      

5 टिप्‍पणियां:

  1. खुद के अन्दर मरते हुए आदमी की वेदना का अहसास नहीं होता ?
    हैवानियत में डूब कर भी आदमी होने की लीला कैसे कर लेतो हो लीलाधारी ???
    Bahut khoob!

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  2. बहुत उम्दा लेख है। सादुवाद१

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  3. बेहद प्रभावशाली कविता की प्रस्तुति।

    शुक्रिया।

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