सोमवार, 15 नवंबर 2010

" युवा नायकत्व का मिथक "

जैसे-जैसे देश का आर्थिक संकट गहराता जा रहा है और समाज कि तमाम संस्थाओं को लाभ का लोभ ग्रस कर भ्रष्ट कर रहा है ,वैसे-वैसे ही देश और समाज के शासक समुदाय को इस तथ्य का गहराई से बोध होता जा रहा है कि वह स्थापित मानदंडों ,मूल्यों तथा विधि द्वारा अपनी सत्ता तथा नायकत्व को दीर्घकाल तक बनाये रखने में सफल न हो सकेंगे .वह अवचेतन में यह अनुभव करने लगे हैं कि पूंजी का प्रसार और सामाजिक विकास एक प्रक्रिया के दो आयाम नहीं हैं.इस कारण सत्ता के सभी प्रतिष्ठान एक नये प्रकार के नायकत्व की छवि गढ़ने के अथक प्रयास में जुट गए हैं ताकि इस संकट से निबटने की व्यवस्था की जा सके और छद्म तथा भ्रमात्मक तरीकों से अपने निजी हितों तथा लाभों को सुरक्षित करते हुए अपनी सत्ता को रूपांतरित रूप में निरंतर रखा जा सके.इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए "युवा नेतृत्व "का एक मिथक सत्ता केन्द्रों तथा मीडिया द्वारा निरंतर गढ़ा जा रहा है ताकि उन माध्यमों से एक दिखावटी लोकसहमति का निर्माण किया जा सके.
               आज जब हमारे सामने इस गहराते मंदीवाड़े में सुरसा की तरह फैलती मंहगाई ,भ्रस्टाचार ,बेरोजगारी के कारण सामाजिक विघटन तथा गृहयुद्ध का आसन्न संकट खड़ा है ,हमें गंभीरतापूर्वक यह पड़ताल करनी होगी की जिस युवा नायकत्व की मिथकीय छवि सत्ता तथा मीडिया एवं बाजारी शक्तियों का घिनोना गठजोड़ गढ़ रहा है ,उसका ऐतहासिक उद्गम तथा चरित्र क्या है ?तथा उसे युवा मानने के हमारे पास आधार हैं ?तो सबसे पहले हम इस प्रश्न पर दृष्टी केन्द्रित कर रहे हैं की "युवा "कौन है ?
            सामान्य व्यक्ति की समझ कहती है कि" बूढ़ा वह है जिसकी शारीरिक शक्ति क्षीण हो चुकी है ,जो अपने समान जीवधारी का निर्माण नहीं कर सकता हो ". अगर इस कसौटी पर "युवा नायक "की छवि को परखा जावे तो निश्चित ही हमारा संभावित राष्ट्र नायक तथा उसकी सेना युवा है.लेकिन यह  सारवान आधार न होगा क्योंकि प्रश्न का सन्दर्भ वर्तमान समाज तथा वैश्विक पूंजी के तर्क तथा दर्शन से निर्मित मूल्यों तथा संस्थाओं का वह ढांचा है जो धन के विस्तार तथा लाभार्जन का एक बूढ़ा एजेंट होने के आलावा अपने सामाजिक विकास की सभी क्षमताएं निःशेष कर चुका है .जिसके लिए सत्ता श्रृंखला के सभी सामाजिक ,सांस्कृतिक तथा धार्मिक घटक ,सामाजिक चेतना के सभी आयामों तथा स्तरों पर नकारात्मक प्रवृत्तियों का निर्लज्ज प्रदर्शन कर रहे हैं .जिस वजह से हमारा समाज एक हताशा का शिकार हो गया है.
        क्या इस तथाकथित युवा में समाज को हताशा के इस दलदल से निकाल कर पुनर्स्थापित करने का कोई सकारात्मक संकल्प एवं सम्भावना है ?
      शायद हम एक ऐसे समय से मुठभेड़ कर रहे हैं,जिसमें शिक्षा ,संस्कृति,मानवीय मूल्यों का पूर्ण निषेध ही युवाओं की पहचान है.शायद आज युवा -शक्ति को इन मूल्यों की इतनी आवश्यकता नहीं है,जितनी कि उन्हें वैश्विक पूंजी के प्रसार के लिए ;
एक ऐसे संघर्ष की,जिसमें बिना मूलगामी परिवर्तन के ऐसी राजनीतिक वास्तविकताओं को रूपायित किया जाना है.जो इस बर्बर
अमानवीय व्यवस्था को बनाये रखने के लिए सभी मानवीय एवं सामाजिक मूल्यों की बलि पर ही आधारित है .जो युवा नायक
इस रहे सहे औपचारिक लोकतंत्र का क्रियाकर्म करके विश्वपूंजी के प्रसार में योगदान कर सकेगा,वही मेग्नेटिक तथा करिश्माई
युवा नेतृत्व मन जायेगा.यह वर्तमान "युवा नायक"जो पूरी तरह से विदेशी शिक्षा संस्कारों से दीक्षित है,उसी के माध्यम से विश्व पूंजीवाद इस कार्य को संपन्न करना चाहता है,जिसके सह-अपराधी होने का कलंक सभी सत्ता तथा विपक्ष की राजनीतिक शक्तियों का भी होगा ,जो राजनीतिक-सामाजिक परिवर्तन का अंतिम टूल संसदीय व्यवस्था को ही मानते हैं.
        आज का आर्थिक उदारीकरण का दौर युवा नेतृत्व से आदर्शवादिता की उतनी प्रभावी मांग नहीं करता ,जितनी इस गहराते हुए विश्व आर्थिक संकट के तात्कालिक व्यवस्थापन की .और इसके लिए एक सक्रिय युवा की छवि गढ़ने में बाजार की ताकतें सभी संसाधनों का प्रभावी उपयोग कर रहीं हैं.पर मूल प्रश्न तो इस आर्थिक संकट के हल का है न कि उसके व्यवस्थापन का .युवा नेतृत्व की वास्तविक पहचान ही यह है कि इस विनाश-उन्मुखी समाज को उबारने के लिए उसके पास क्या नये विकल्प हैं ?क्या स्वप्न हैं ?मात्र शारीरिक रूप से युवा होने से ही हम सामाजिक युवा नहीं हो जाते बल्कि हम युवा सामाजिक संघर्षों से होते हैं,जिनके द्वारा हम एक नये समाज का निर्माण कर रहे होते हैं.क्योंकि सामाजिक संघर्ष ही ज्यादा मानवीय ,ज्यादा जनभागीदारी पर आधारित और ज्यादा लोकतान्त्रिक समाज को गढ़ने वाली वह ऐतहासिक खराद है जिसने समाज को युवा नेतृत्व दिये हैं.क्योंकि कोई पैदायशी युवा नहीं होता,सिर्फ सामाजिक संघर्ष ही उसे युवा रखते हैं न कि सिद्धान्तहीन संकट व्यवस्थापन की कुशलता.
                                              श्याम बिहारी पराशर ,ग्वालियर

शनिवार, 6 नवंबर 2010

यक्ष-प्रश्न

मैं तुम से तुम्हारा धर्म नहीं पूछूँगा ,
जाति भी नहीं ,यह भी नहीं की तुम
वामपंथी हो या दक्षिणपंथी या सनातनी
संत,    महंत  या   फिर  मठाधीश
पर यह तो कहो कि कैसे इतने सहज ,अतिमानवीय ,
निष्काम ,निर्लिप्त ,निर्विकार ,निष्पक्ष और भव्य बन पाए तुम ?
मैं तुम से यह नहीं कहूँगा कि मेरी मति ,समझ ,जीवन के मूल्य
तुम्हारे मूल्यों से श्रेष्ठ हैं और यह भी नहीं कि तुम्हारे हेय हैं ,
पर महामना सच -सच कहो कि क्या तुम्हारा आचरण ,तुम्हारी
समझ का संश्लेषित रूपांतरण है या ठीक उसके विपरीत
तुम्हारी समझ ,मीमांसा ,प्रस्थापना ,अवधारणाओं का खंडन /
मैं यह भी नहीं पूछूँगा कि तुम शिक्षक ,पत्रकार ,वैज्ञानिक ,राजनीतिज्ञ हो ,
पर मेरे प्रियमित्र ,सहस्राव्दियों का यह द्वैत समझ ,आचरण के बीच
कितने विरोधी ,एक- दुसरे को निषेधित करने वाले खानों में बाँट गया है मानवता को
देश, धर्म ,संस्कृति ,नस्लों ,जातियों के नाम पर /
सच क्या तुमको वास्तव में इसका अहसास नहीं होता
कि धीरे- धीरे सहस्राव्दियों से जीवन मूल्यों की कथनी- करनी का यह द्वैत
सुरसा कि तरह लील रहा है मानवीय संवेदनाओं को /
सच कहो क्या तुमको खुद की रक्ताल्पता ,रुग्णता ,जर्जरता ,शनैः- शनैः
खुद के अन्दर मरते हुए आदमी की वेदना का अहसास नहीं होता ?
हैवानियत में डूब कर भी आदमी होने की लीला कैसे कर लेतो हो लीलाधारी ???
             -----श्यामबिहारी पराशर ,ग्वालियर .