बुधवार, 23 नवंबर 2022

स्वयमेव मृगेन्द्रता:डाॅक्टर गोविन्द सिंह


 नाभिषेको न संस्कारः सिंहस्य क्रियते वने।
विक्रमार्जितसत्वस्य स्वयमेव मृगेन्द्रता ॥

(वनराज सिंह का कोई राज्याभिषेक नहीं करता बल्कि वह स्वयंभू राजा होता है। अपने पौरुष और सामर्थ्य के बल पर वह वन क्षेत्र का अधिपति होता है। अपने गुणों और पराक्रम द्वारा मृगेंद्र पद पर आसीन होने को ही हितोपदेश के रचनाकार नारायण पंडित ने 'स्वमेव मृगेन्द्रता' कहा है।)

मध्यप्रदेश का भिंड,जो भिंडी नामक पौराणिक ऋषि की तपोभूमि रहा है और कालांतर में उन्हीं के नाम पर इतिहास में प्रख्यात हुआ, वीरों की भूमि रहा है। अध्यात्म और बलिदान की इस भूमि का अतीत काफी गौरवशाली रहा है। देशभक्ति और आत्माभिमान यहां के लोगों में कूट कूटकर भरा है। यहां की उर्वरा भूमि ने प्रदेश को अनेक जननायक दिए हैं, जिनमें से एक उल्लेखनीय नाम डाॅक्टर गोविन्द सिंह का है जिन्होंने वर्ष 1990 से लगातार सात बार लहार विधानसभा क्षेत्र से विधायक के रूप में निर्वाचित होकर कीर्तिमान स्थापित किया है।एक समय लहार क्षेत्र के विधायक के रूप में डाॅक्टर गोविन्द सिंह को जानने वाले प्रदेश के लोग अब लहार क्षेत्र को डाॅक्टर गोविन्द सिंह के नाम से जानते और पहचानते हैं।यह सच में बहुत असाधारण बात है।श्री नरसिंहराव दीक्षित के बाद डाॅक्टर गोविन्द सिंह ऐसे इकलौते नेता हैं जिनकी समूचे भिंड क्षेत्र में तूती बोलती है।
    राजनीति में पदार्पण के साथ ही डाॅक्टर गोविन्द सिंह ने समाज के हाशिए पर धकेले गए लोगों के हितों की रक्षा के लिए अपने संकल्पित राजनीतिक महाभियान की शुरुआत की और उसे अपनी परिणति तक पहुंचाने में प्राणपण से जुट गए। दलितों और वंचितों की आवाज बनकर राजनीतिक गलियारों में मुखर रहने वाले डॉक्टर सिंह ने भिंड और लहार क्षेत्र से जुड़े मुद्दों को लेकर होने वाले राजनीतिक संघर्ष में हमेशा अपनी अग्रणी भूमिका निभाते हुए उनका न्यायपूर्ण ढंग से साथ दिया है और अपने जनप्रतिनिधि होने के दायित्व का सही अर्थों में निर्वाह किया है। दलित, पीड़ित और वंचित लोगों के साथ हमेशा खड़े रहने वाले डॉक्टर सिंह ने सार्वजनिक जीवन में भी उच्च नैतिक प्रतिमान स्थापित किए हैं। दलितों और वंचितों के प्रति उनकी पक्षधरता दीवानगी की हद तक रही है।
        क्षेत्र की जनता के साथ सीधा जुड़ाव, लोगों की दिन -प्रतिदिन की समस्याओं के समाधान में व्यक्तिगत पहल,सबका साथ-सबका विकास डाॅक्टर साहब की कार्यशैली रही है।डाॅक्टर साहब की सहज सुलभता और क्षेत्र की जनता से व्यक्तिगत जुड़ाव ने उन्हें सबका चहेता बना दिया है।
         डाॅक्टर साहब की सांगठनिक क्षमता विलक्षण है। कांग्रेस पार्टी से जुड़ने के बाद डॉक्टर साहब ने सबसे पहले दशकों से गुमनामी के अंधेरे में गुम कांग्रेस पार्टी की स्थानीय इकाई को पुनर्गठित कर उसमें नया जोश भरा और स्थानीय समस्याओं को लेकर छेड़े गए राजनीतिक संघर्षों के द्वारा कांग्रेस की लहार इकाई को अपने पैरों पर मजबूती से खड़ा कर उसे पुनर्स्थापित किया।डाॅक्टर साहब की संगठन क्षमता का लोहा उनके राजनीतिक विरोधी भी मानते हैं।
      लहार क्षेत्र में विकास की भागीरथी बहाने वाले  विकास-पुरुष डाॅक्टर सिंह की पहल और प्रेरणा से अब तक 327.5 करोड़ रुपए के रिकार्ड विकास कार्य हुए हैं जो एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है और जिसने लहार क्षेत्र के विकास में एक नया आयाम जोड़ दिया है।
           डाॅक्टर गोविन्द सिंह का जन्म भारत के हृदय प्रदेश मध्यप्रदेश के भिंड जिलान्तर्गत लहार तहसील के वैशपुरा ग्राम में 1 जुलाई 1951 में हुआ था।आप पिता श्री मथुरा सिंह कुशवाह (कछवाह)व माता श्रीमती रामप्यारी देवी के आंगन की किलकारी हैं। प्रारंभिक शिक्षा के उपरांत जीवाजी विश्वविद्यालय से बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद आपने शासकीय आयुर्वेदिक महाविद्यालय जबलपुर से बी.ए.एम.एस. की डिग्री प्राप्त की। छात्र जीवन से ही आपकी सामाजिक और राजनीतिक गतिविधियों में गहरी रुचि और सक्रियता रही है।आप वर्ष 1974-75 में आयुर्वेदिक महाविद्यालय जबलपुर छात्र संघ के अध्यक्ष चुने गए। छात्र राजनीति के इस प्रयोग काल में ही उनमें राजनीतिक नेतृत्व कौशल का बीजारोपण हुआ और उनके भावी राजनीतिक जीवन का ब्लूप्रिंट तैयार हुआ जो जमीनी राजनीति से जुड़ने पर उनके सोशल इंजीनियरिंग के व्यावहारिक प्रयोगों में प्रस्फुटित हुआ।
            आप वर्ष 1979-82 एवं वर्ष 1984-85 में सहकारी विपणन संस्था लहार के अध्यक्ष रहे व वर्ष 1984-86 में जिला सहकारी भूमि विकास बैंक के अध्यक्ष पद पर आसीन रहे। वर्ष 1990 में पहली बार मध्यप्रदेश की 9वीं विधानसभा के सदस्य निर्वाचित हुए और तब से लगातार रिकॉर्ड सात बार चुनकर 15वीं विधानसभा में लहार क्षेत्र का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं।आपके नाम दर्जनों उपलब्धियां दर्ज हैं। वर्ष 1997 में उत्कृष्ट विधायक सम्मान से सम्मानित हुए। वर्ष 1998-2003 में गृह राज्य मंत्री व सहकारिता विभाग के केबिनेट मंत्री रहे तथा वर्ष 2019 में कमलनाथ मंत्रिमंडल में सामान्य प्रशासन, सहकारिता, खाद्य एवं नागरिक आपूर्ति, उपभोक्ता संरक्षण विभाग व संसदीय कार्य विभाग के केबिनेट मंत्री रहे हैं। वर्ष 2002 में मध्य प्रदेश राज्य सहकारी आवास संघ व वर्ष 2009-12 में मध्यप्रदेश लोकलेखा समिति के अध्यक्ष पद पर आसीन रहे हैं। वर्ष 2016 व 2017 में प्रतिष्ठित नई दुनिया संसदीय पुरस्कार म.प्र. से सम्मानित हुए। वर्ष 2008 से अब तक लगातार मध्यप्रदेश कांग्रेस कमेटी के उपाध्यक्ष हैं व 29 अप्रैल 2022 से नेता प्रतिपक्ष की आसंदी पर विराजमान हैं। राजकीय प्रतिनिधि मंडल के सदस्य के रूप में आप अनेक बार विदेश यात्रा कर अपने अनुभव के अक्षयकोष को समृद्ध कर चुके हैं।

          प्रकृति और पर्यावरण के प्रति आपके मन में उत्कट प्रेम रहा है। बीहड़ में स्थित नारदेश्वर क्षेत्र को पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करने में आपने पहल की और बीहड़ को सुरम्य और दर्शनीय स्थल में परिवर्तित कर दिया। भिंड क्षेत्र में अवैध और अविवेकपूर्ण रेत उत्खनन से हो रही पर्यावरणीय क्षति के बारे में जनजागरण करने के लिए और शासन -प्रशासन को कुंभकर्णी नींद से जगाने के लिए आपने पदयात्राएं की और आंदोलनों का नेतृत्व किया।

डाॅक्टर साहब ने लहार क्षेत्र में विकास की जो नई इबारत लिखी है उससे इस क्षेत्र को एक नई पहचान मिली है। लहार विधानसभा क्षेत्र मध्यप्रदेश का ऐसा इकलौता विधानसभा क्षेत्र है जिसका प्रत्येक ग्राम और उपग्राम पक्की सड़क द्वारा मुख्यमार्ग से जुड़ा है।अतीत में अशिक्षा और अपराध के गहरे अंधेरे में डूबे इस क्षेत्र में शिक्षा का जो नया आलोक फैला, उसके कारण यहां के सैकड़ों युवा आज उच्च तकनीकी और प्रशासनिक पदों पर पदस्थ हैं और विदेशों में भी कार्यरत हैं। लेकिन 2023 की चुनावी सूनामी में उन्हें करारी हार का सामना करना पड़ा।


शुक्रवार, 14 अक्तूबर 2022

डिजिटल साया और बच्चे

 कहते हैं कि लोगों को उनकी संगति से पहचाना जाता है क्योंकि हम जो कुछ जानते हैं वह या तो अपने अनुभव से सीखते-जानते हैं या दूसरों से मिली जानकारी से। हमारी जानकारी का बहुलांश  स्वानुभव के बजाय अर्जित अधिक होता है। मातापिता, गुरुजन, मित्र और पुस्तकें हमारे ज्ञानार्जन के सामान्य स्रोत है। लेकिन अब डिजिटल माध्यम इसमें बहुत बड़ी भूमिका निभाने लगे हैं। मोबाइल की सर्वसुलभता ने इसके प्रभाव की व्यापकता को और बढ़ा दिया है। जैसे ब्लेड का इस्तेमाल हजामत करने के लिए होता है लेकिन उसका दुरुपयोग जेब काटने के लिए भी किया जाता है।उसी तरह मोबाइल के जरिए सकारात्मक जानकारी भी पलक झपकते जुटाई जा सकती है वैसे ही नकारात्मक और वर्जनीय जानकारी जुटाई जा सकती है।सेक्स और पोर्न जैसे विषयों, जिनमें वयस्कों की दिलचस्पी होती है,वे अब कच्ची उम्र के बच्चों के लिए भी सहज सुलभ हैं। जैसे बंदर के हाथ में उस्तरा देना सुरक्षित नहीं होता वैसे ही  बच्चों को हासिल यह अवांछित जानकारी उन्हें उम्र से पहले वयस्क बना देती और उसके जो दुष्परिणाम होते हैं उसे बताने की जरूरत नहीं है। फेसबुक जैसा लोकप्रिय डिजिटल माध्यम चाहे-अनचाहे अश्लील सामग्री परोसता रहता है।कालगर्ल फेसबुक वाच के जरिए उत्तेजक विजुअल डालकर लोगों को उकसाती हैं।यह बड़ी चिंताजनक स्थिति है। चूंकि पढ़ाई-लिखाई एक जरूरी टूल होने की वजह से मोबाइल आज हर किशोर के पास है इसलिए उनमें यह विवेक और समझ पैदा करने की जरूरत है कि उनके लिए क्या हितकर और जरूरी है और कौन से विषय अवांछनीय हैं। गर्लफ्रेंड और बायफ्रेंड बनाना न केवल फैशन है बल्कि स्टेटस सिंबल बन रहा है। इसलिए आपकी जरा-सी लापरवाही आपके बच्चों को अंधेरे गर्त में धकेल सकती है। गूगल का सर्च इंजन काफी हद तक अश्लील सामग्री को फिल्टर करता है लेकिन यूसी ब्राउज़र, ओपेरा ब्राउज़र इस तरह की वर्जनीय सामग्री को सर्च करने में मददगार बनता है। इसलिए केवल गूगल क्रोम जैसे ब्राउजर को वरीयता दें। बच्चों पर अपनी पैनी नजर रखें। वे आपको ब्लफ तो नहीं दे रहे हैं इस बात को लेकर सतर्क रहें।🤔

सोमवार, 30 जुलाई 2018

वेदों की मूल अंतर्दृष्टि

ऋग्वेद की अंतर्वस्तु का अध्ययन और पड़ताल करने पर वैदिक जनों के मूल याने आद्यभौतिकवादी दृष्टिकोण पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है |अधिकांश ऋचाओं में लौकिक कामनाओं को केन्द्रीय महत्त्व मिला है |उनमें या तो वैदिक जनों की लौकिक आवश्यकताओं की पूर्ती के लिए की जाने वाली आनुष्ठानिक क्रियाओं का उल्लेख है या उन अवसरों पर गाये जाने वाले गानों का वर्णन है जिनकी विषयवस्तु उनकी प्रत्यक्ष आवश्यकताएं और भौतिक इच्छाएं हैं |चूँकि विचार मूलतः व्यवहार का उत्पाद है और जीवन की वास्तविक परिस्थितियां प्रत्येक युग में चिंतन की दिशा और दशा दोनों का निर्धारण और नियमन करती है इसलिए ऋग्वेद में परिलक्षित दृष्टिकोण वैदिक जनों की मूल विचारदृष्टि मालूम होती है ,जो स्पष्टतः आद्यभौतिकवादी दृष्टिकोण है |कालांतर में जीवन की परिस्थितियों में बदलाव आने पर वर्गीकृत समाज में स्वभावतः भाववादी दृष्टिकोण अधिक ग्राह्य माना गया जिसके कारण वैदिक जनों के सामूहिक जीवन में मौजूद आद्यभौतिकवादी दृष्टिकोण को भाववादी रहस्यात्मकता ने अतिच्छादित कर लिया और व्राह्मण काल आते -आते वह गौण होकर तिरोहित हो गया |

कर्म : जैन दृष्टि में

जैन मान्यता है कि मन ,वाणी और कर्म से की जाने वाली हर क्रिया से एक सूक्ष्म प्रभाव उत्पन्न होता है जिसकी'कर्म' संज्ञा है और इसका भौतिक अस्तित्व माना गया है लेकिन अत्यंत सूक्ष्म होने के कारण यह इन्द्रियगोचर नहीं होता |न दिखने के कारण इसे 'अदृष्ट 'की संज्ञा भी दी गयी है |जिस प्रकार क्रिया (व्यापार)'कर्म 'का आधार है ,उसी प्रकार 'कर्म' भी क्रिया का आधार है |'क्रिया' और 'कर्म' का यह चक्र अनवरत चलता रहता है |क्रिया और कर्म के बीच वीज -वृक्षवत सम्बन्ध माना गया है क्योंकि जिस प्रकार वीज से वृक्ष और वृक्ष से वीज उत्पन्न होते हैं उसी प्रकार 'क्रिया' से 'कर्म' नामक यह सूक्ष्म अदृश्य तत्व उत्पन्न होता है और यह 'कर्म' किसी अन्य 'क्रिया' का हेतु बनता है तथा जिस प्रकार वीज अनुकूल परिस्थितियों में अंकुरित होता है उसी प्रकार कर्म भी अनुकूल समय पर फलित होते हैं और क्रिया और तत्जनित सुख दुःख का हेतु बनते हैं |चूँकि वीज को भून देने से उसकी उत्पादकता नष्ट हो जाती है इसलिए 'कर्म' और वीज की इस समानता के आधार पर तपस्या द्वारा ,जिसका मूल अर्थ तपना या उष्णता के प्रति सहनशीलता विकसित करने के लिए किया जाने वाला अनुष्ठान है -से कर्म निष्फल और प्रभावहीन हो जाते हैं जिससे क्रिया और कर्म के इस चक्र का उच्छेद हो जाता है |क्रिया से कर्म और कर्म से क्रिया और सुख -दुःख के वेदन के चक्र का उच्छेद करने के लिए क्रिया से विरति को एकमात्र उपाय समझने के कारण जैन परंपरा में 'अक्रियावाद' का पुरस्करण देखने को मिलता है |निवृत्ति के अपने आत्यंतिक आग्रह के कारण जैन दृष्टि एक श्रमापसारी विचार- दृष्टि बन गयी है |

दर्शन का दिग्दर्शन

दर्शन या दर्शनशास्त्र से सामान्य तात्पर्य है -जीवन और जगत के मूल उत्स के बारे में सैद्धांतिक विमर्श | इस विमर्श में जीवन को उन्नत बनाने के उपाय खोजना भी शामिल है लेकिन प्रायः हमारा आग्रह जीवन के भौतिक पक्ष पर कम और उसके अपार्थिव और लोकोत्तर पक्ष पर ज्यादा रहा है |इस कारण दर्शनशास्त्र वास्तविक जीवन की समस्याओं का अध्ययन न कर काल्पनिक और अगोचर संसार के अध्ययन की ओर उन्मुख रहा है जो उचित नहीं है |दर्शन का मूल या बुनियादी प्रश्न यह है कि पदार्थ और चेतना में से प्राथमिक या मूल तत्व कौन-सा है ,जिससे जीवन का उद्भव हुआ या ये दोनों ही चरम वास्तविकताएं हैं जो जीवन के आधार घटक या उपादान हैं |जब हम पदार्थ और चेतना ,दोनों की चरम वास्तविकता होने की सम्भावना पर विचार करते हैं तो सहज ही यह प्रश्न उपस्थित होता है कि यदि पदार्थ और चेतना दोनों के संयोग से जीवन का उद्भव हुआ है और दोनों ही चरम वास्तविकताएं हैं तो इनको सार्वकालिक और सार्वत्रिक होना चाहिए और ये दोनों तत्व निखिल ब्रह्माण्ड में व्याप्त होने चाहिए लेकिन हमारे सौर मंडल में पृथ्वी के अतिरिक्त अन्य किसी भी ग्रह पर जीवन के अस्तित्व के प्राथमिक चिन्ह बहुत खोजने पर भी नहीं मिले हैं |इसके आलावा पृथ्वी पर भी जीवन की उपस्थिति और बहुलता सर्वत्र नहीं है ,जबकि पदार्थ तो इस पृथ्वी और निखिल ब्रह्माण्ड में सर्वत्र मौजूद है |तब क्या यह मानना चाहिए कि चेतन तत्व सर्वत्र व्याप्त नहीं है लेकिन ऐसा मानने पर उसकी चरम वास्तविकता वाली स्थिति खतरे में पड़ जाती है |यदि यह माने कि दोनों तत्व ब्रह्माण्ड में सर्वत्र विद्यमान हैं पर उनका संयोग किसी 'उत्प्रेरक 'की उपस्थिति में संभव होता है तो उस उत्प्रेरक को भी सर्वव्यापक होना चाहिए और यदि यह सम्भावना सत्य होती तो इस ब्रह्माण्ड में सर्वत्र या कम से कम निकट के किसी अन्य ग्रह ,उपग्रह पर जीवन के चिन्ह मिलने चाहिए थे लेकिन ऐसा भी नहीं है ,इसलिए इस सम्भावना को पूरी तरह खारिज करते हुए जब हम पदार्थ या चेतना में से किसी एक तत्व के प्राथमिक होने की अद्वैतवादी संकल्पना पर विचार करते हैं तो पाते हैं कि यदि चेतन तत्व से पदार्थ का विकास हुआ होता तो जहाँ पदार्थ है वहां जीवन भी अवश्य होना चाहिए लेकिन ऐसा नहीं है |इसलिए यह सम्भावना ही युक्तियुक्त लगती है कि पदार्थ के विकास की उच्चतर अवस्था में 'चेतना' नामक यह गुण विकसित या उत्पन्न हुआ है और इसीलिए चेतना की प्रखरता पदार्थ के विकास की उच्चतर अवस्था और उसकी जटिलता के परिमाण पर निर्भर करती है|यह निष्कर्ष ही भूतवाद की आधार भूमि है और इसके विपरीत जो चेतना को प्राथमिक मानते हैं ,वे भाववादी हैं ,जो यथार्थ की ओर से आँखें मूंदकर कल्पना- विलास में निमग्न रहते हैं |
श्रीश राकेश

यथार्थ- एक टिप्पणी

यथार्थ कृत्यात्मकता में निहित होता है |इसलिए उसे केवल क्रियात्मक रूप से जाना जा सकता है |हर वह तथ्य जो क्रियमाण या प्रवृत्तमान है ,यथार्थ है |यथार्थ का प्रकटीकरण गति या प्रवृत्ति के द्वारा होता है ,इसलिए गति या प्रवृत्ति यथार्थ के रूपाकार हैं |जो घटित हो रहा है ,वह यथार्थ है और जिसके घटित होने की संभाव्यता है ,वह संभावना है |यथार्थ अस्तित्वभूत होता है ,उसका अवबोधन इन्द्रियों के माध्यम से संभव है लेकिन संभावना परोक्ष और अनगढ़ होती है |यथार्थ एक साकार संभावना होती है जबकि संभावना एक गर्भित यथार्थ होता है ,जिसके अवतरण का न तो समय निशित होता है और न स्वयं अवतरण |
यथार्थ वह है जो अपने विद्यमान रूप में है और आदर्श वह है जो देश, काल और परिस्थिति के अनुसार वांछनीय और उचित है |इसलिए आदर्श हमेशा श्रेयस्कर होते हैं |कहना न होगा कि हमारा बल आदर्श के यथार्थीकरण पर होना चाहिए |
.....श्रीश राकेश

यज्ञ- एक टिप्पणी

यज्ञ को श्रीपाद अमृत डांगे वैदिक जनों के उत्पादन का सामूहिक ढंग मानते हैं जबकि देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय इसे सामूहिक उत्पादन का आनुष्ठानिक पक्ष मानना चाहते हैं लेकिन मेरे विचारानुसार यज्ञ वितरण का सामूहिक ढंग है |वर्गपूर्व समाज में कबीले के हर सदस्य द्वारा किये गए उपार्जन को कबीले की संपत्ति माना जाता था तथा व्यक्तिगत संपत्ति का कोई अस्तित्व नहीं था और कबीले की एकमात्र संपत्ति निर्वाह- द्रव्य या खाद्य पदार्थ हुआ करती थी |यज्ञ, कबीले के श्रम- सक्षम सदस्यों द्वारा किये गए उपार्जनों का कबीले के सभी सदस्यों में यथायोग्य वितरण का एक सामूहिक ढंग है और संभवतः इस अवसर पर होने वाला कोई अनुष्ठान या कर्मकांड भी |यज्ञ के निमित्त आने वाली सामग्री को 'साकल्य' कहने के पीछे भी यही भाव-व्यंजना मालूम होती है|
...........श्रीश राकेश