गुरुवार, 8 दिसंबर 2011

आत्मावलंबन

व्यक्ति जन्म से लेकर मृत्यु तक ,बचपन से लेकर बुढ़ापे तक पराश्रित रहता है और यह परावलंबन उसके स्वभाव में गहरे पैठ जाता है |बचपन में तो वह अपने माता-पिता और परिजनों के आश्रय में रहता है और किशोरावस्था में अपने बाल- सखाओं और मित्रों के सानिध्य में रहता है |युवावस्था में जब वह गृहस्थाश्रम में प्रवेश करता है तो जीवन-संगिनी के रेशमी आँचल की छाँव में विश्रांति का अनुभव करता है |वृद्धावस्था में जब वह अशक्त हो जाता है तो अपनी संतानों के प्रश्रय में रहता है और उन पर अवलंबित रहता है |लेकिन जब ये सभी जन उससे विमुख हो जाते हैं तो उसे सारे लौकिक रिश्ते-नाते और सहारे झूठे लगने लगते हैं और वह किसी अचीन्ही लोकोत्तर सत्ता की  ओर उन्मुख होता है और उसके सानिध्य में संबल और त्राण खोजता है |इस तरह वह शुरू से अंत तक परावलंबन में जकड़ा परजीवी और परमुखापेक्षी बना रहता है |यदि व्यक्ति का आत्मबल जाग्रत हो जाये तो उसे किसी बाह्य और वायवी सहारे की आवश्यकता ही नहीं होगी ||
        .......श्रीश राकेश 

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