क्या जाने वह ,भला भूख की आग
कभी भाग्य का छल कर ,कभी बाहुबल से
हड़पा हो जिसने औरों का भाग |
यह नहीं विधाता का कोई अभिशाप ,दंड
जिंदा शैतानों के हाथों का खेल है ;
यह है अमोघ उपकार सेठ ,श्रीमंतों का
उनकी रोपी, पोषी,रक्षित विषवेल है |
शस्त्रों,शास्त्रों के बल पर न्यायोचित ठहरा
उत्पीड़न को दैवी-विधान कह भरमाया ;
दोनों हाथों में लड्डू ले दानी बनकर
जिन्हने फैलाई फिर उदारता की माया |
व्रत, अनशन चाहे भले रहे हों अनुष्ठान ;
पर, भूख एक पीड़ादायी सच्चाई है ;
जो लोग धकेले गए हाशिये पर उनके
नंगे पाँवों में गहरी फटी बिबाई है |
औरों से कर उपवासों की पैरोकारी
खुद छेड़ रहे जो भरे पेट का राग ;
सच क्या जाने वे भला भूख की आग ||
...श्रीश राकेश
बेहद शानदार,आपकी कविता में बहुत पीड़ा है मित्र।
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