विवाह एक महत्वपूर्ण सामाजिक संस्था है जिसका उद्देश्य व्यक्ति को जैविक और सामाजिक पूर्णता प्रदान कर समाज की निरंतरता बनाये रखने के मान्यविधान को गतिशील रखना है |विभिन्न भाषाओं ,संस्कृति और जातीय वैशिष्ट्य के आधार पर विवाह के अनेक स्वरूप और रीतियाँ प्रचलित हैं लेकिन इन सभी का यहाँ विवेचन करना हमारा अभीष्ट न होकर हिंदी भाषी क्षेत्र के हिन्दुओं में विवाह के समय होने वाले लोकाचारों की प्रासंगिकता को रेखांकित कर उनके औचित्य को परखना और विमर्श करना है |
विवाह के अनुष्ठान का वर और कन्या की कुंडली मिलान के साथ श्रीगणेश होता है |भावी दम्पति का जीवन सुखमय और निर्विघ्न हो इसलिए ज्योतिषीय मान्यताओं के अनुरूप वर और कन्या की कुंडली मिलाई जाती है |लेकिन अनेक बार वर और कन्या में ज्योतिषीय अनुरूपताओं के बावजूद उनका वैवाहिक जीवन असंतोषपूर्ण और असफल होता है अथवा निर्दोष विवाह मुहूर्त होने पर भी प्राकृतिक या मानवीय बाधाएँ उपस्थित हो जाती हैं |इसके विपरीत ऐसे अनेक उदाहरण हैं जिनमें विना कुंडली मिलाये या विना शुभ मुहूर्त के संपन्न हुए विवाह पूर्ण सफल रहे हैं और उनके बीच तालमेल की कोई कठिनाई नहीं आई |बहरहाल सुखी और सफल दाम्पत्य जीवन के लिए ज्योतिषीय अनुरुपताओं की निर्णायकता और प्रभावकारिता वैज्ञानिक रूप से प्रमाणित नहीं है |लेकिन यदि विवाह निश्चित करते समय विवाहर्थियों के स्वास्थ्य सम्बन्धी पहलुओं को दृष्टिगत रखा जाये तो यह भावी दम्पति के लिए अवश्य लाभप्रद होगा |
वर पक्ष और कन्या पक्ष दोनों के संतुष्ट और सहमत होने पर विवाह का पहला चरण पूरा होता है और दूसरे सोपान के रूप में लग्नोत्सव का कार्यक्रम होता है जिसमें कन्या पक्ष द्वारा लग्न पत्रिका वर पक्ष को प्रेषित की जाती है |इसमें वैवाहिक अनुष्ठान का पूरा समयबद्ध विवरण समाहित रहता है और जो इस अनुष्ठान के शुभारम्भ की औपचारिक घोषणा भी होती है |
पुराने समय में जब न मशीनी आटा चक्की थी और न गैस से संचालित होने वाले चूल्हे थे ,एक बड़े समूह के लिए भोजन का प्रबंध करना निश्चय ही एक कठिन और चुनौती भरा कार्य था |इसलिए सहकार के आधार पर इस चुनौती से निपटा जाता था |चूँकि खाना बनाने के वास्ते बड़े-बड़े चूल्हे बनाने के लिए काफी मात्रा में मिट्टी की आवश्यकता होती थी इसलिए विवाहार्थी पक्ष और उनकी सम्बन्धी व मित्र महिलाएं इस कार्य हेतु मिट्टी लाने के लिए गाँव के किसी उपयुक्त स्थान पर सामूहिक रूप से जाती थीं और गाते-बजाते हुए समारोहपूर्वक इस कार्य को संपन्न करती थीं ,जो 'मटियाने की रस्म' कहलाती है |इसी प्रकार आटा पीसने का कार्य भी सहकार के आधार पर होता था, जिसमें सभी सम्बन्धी और मित्र महिलाएं हाथ बाँटती और श्रम-परिहार के लिए मंगलगीत गाते हुए इस चुनौती भरे कार्य को पूरा करती थीं |चूँकि यह एक समयसाध्य कार्य था इसलिए विवाहार्थी पक्ष द्वारा आगंतुक महिलाओं के लिए स्वल्पाहार की व्यवस्था की जाती थी जो चबैना कहलाता था और जो सामान्यतः अंकुरित चना (बिल्हा) होता था |भले ही आज यह सारा कार्य बिजली से चलने वाले उपकरणों की मदद से सहजता से हो जाता है लेकिन सहकार की वह दुर्लभ सामाजिक भावना लुप्त होती जा रही है,जो हमारी सबसे बड़ी विशिष्टता रही है |आज इन रस्मों को उनके औचित्य और उपयोगिता को समझे विना महज लकीर पीटने के लिए ही निभाया जाता है |
हल्दी और मेहंदी की रस्मों का उद्देश्य वर और कन्या के रूप-सौन्दर्य को निखारना और उनके व्यक्तित्व में चार चाँद लगाना है |ये महज रस्में नहीं हैं बल्कि इन्हें निभाते समय जो प्यार और अपनापन छलकता है ,वह अतुलनीय है |आज पेशेवर सौन्दर्य-विशेषज्ञ इस कार्य के लिए बुलाये जाते हैं लेकिन उसमें भावनाओं की वह अनूठी मिठास कहाँ होती है ?
वर और कन्या दोनों पक्षों में मंडप-आच्छादन का कार्यक्रम होता है |मंडप वह निर्दिष्ट स्थान होता है जहाँ पर इस अनुष्ठान से जुड़ीं सभी प्रमुख रस्में पूरी की जाती हैं | इसका निर्माण में लकड़ी के चार खम्भों और आच्छादन के लिए कांस या घास-फूस का उपयोग होता है |वर पक्ष के यहाँ मंडप के मध्य में एक स्तम्भ पर दीपाधार लगा रहता है जिस पर दीपक प्रज्वलित कर रखा जाता है और जो घर में हर्षोल्लास के आगमन का प्रतीक होता है |कन्या पक्ष के यहाँ मंडप के चारों खम्भों के सहारे मिट्टी के सात-सात कलश रखे जाते हैं जो आम के पत्तों से सुसज्जित रहते हैं |जिन्हें चौरी कहते हैं ,स्थान भेद से इसके लिए अन्य नाम भी प्रचलित हो सकते हैं |मिट्टी के ये सुसज्जित कलश संपन्नता का प्रतीक होते हैं |सप्तपदी के समय जब वर-कन्या मंडप की प्रदक्षिणा करते हैं ,हल्दी में रंगा कच्चा सूत(कलावा)उसके चारों ओर लपेटा जाता है |जो कच्चे सूत की तरह नाजुक वैवाहिक रिश्ते को यत्नपूर्वक और सावधानी से सहेजने-सँभालने के गहरे अर्थ को अपने भीतर समेटे होता है |
विवाहार्थी पक्ष के सभी निकट सम्बन्धियों के कपड़ों पर हल्दी रँगे दोनों हाथों की छाप लगाई जाती है |यह एक पहचान-चिन्ह है जो विवाहार्थी पक्ष से उनकी निकटता दर्शाता है |पाणिग्रहण के दिन एक महत्वपूर्ण रस्म वर-कन्या के मामा पक्ष द्वारा पूरी की जाती है जो भात,चीकट या पहरावनी के नाम से जानी जाती है ,जिसमें भाई(भतैया)अपनी बहिन (यथास्थिति ,वर या कन्या की माँ )को भात(चावल)भेंट करता है ,जिसे खाकर वह अपना उपवास तोड़ती है |इस अवसर पर भतैया अपनी बहिन,बहनोई और उनके परिजनों को यथाशक्ति वस्त्र-आभूषण भेंट करता है जो इस पावन कार्य के संपादन में उनके सहयोग का विवक्षित आश्वासन होता है |
पाणिग्रहण के समय वर पक्ष कन्या(दुल्हन)के श्रृंगार के निमित्त जो सौभाग्य -सामग्री ले जाता है उसमें लकड़ी का बना सिंदूरदान(सिंदरोटा)प्रमुख होता है |यह सिंदरोटा ही अब सिन्दोरी-सिंदोरा कहलाने लगा है |इसी अवसर पर जल के देवता वरुण की पूजा के लिए मिट्टी के एक सुसज्जित कलश(बरौना) में सात प्रकार की सामग्री रखकर वर पक्ष ले जाता है जो बाद में नदी या तालाब में विसर्जित कर दी जाती है |बरौना की यह रस्म वैदिक देवता वरुण को प्राचीन काल में मिलने वाले महत्व को प्रमुखता से दर्शाती है |
विवाह से जुड़ी एक दिलचस्प रस्म धान-बुबाई की रस्म है |जिसमें मंडप के नीचे कन्या पक्ष के किसी दम्पति द्वारा भावी दम्पति की सुख-समृद्धि की कामना , वर-वधू की प्रदक्षिणा करते हुए चारों ओर धान बिखेरकर की जाती है |यह वास्तव में एक प्रतीकात्मक तांत्रिक अनुष्ठान है |
पुराने समय में आवागमन के आधुनिक साधनों के आभाव में बैलगाड़ियाँ यात्रा सबसे सुलभ साधन थीं |चूँकि बैलगाड़ियों से यात्रा पूरी करने में काफी समय बीतता था इसलिए कन्या-पक्ष द्वारा वर-वधू और बारातियों(वर-यात्रियों )के लिए पाथेय(रास्ते के लिये नाश्ता ) साथ रखा जाता था |ये पाथेय सभी जगहों पर सहजता से सुलभ बांस से बने बड़े टोकरों में रखा जाता था |आज यह समूचा परिदृश्य बदल चुका है लेकिन बांस के बने टोकरे ,पंखे इत्यादि देने का चलन बदस्तूर जारी है |
दूल्हा-दुल्हन शब्द बड़े ही अर्थ-गंभीर हैं जो संस्कृत के दुर्लभ शब्द से विकसित हुए हैं | दूल्हा ,दुल्हन की तलाश में कितना श्रम करना पड़ता है और कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं ,यह तो कोई भुक्तभोगी ही जान सकता है | बड़े संघर्षों के बाद कहीं हाथ पीले हो पाते है |दुल्हे का दुल्हन के घर हथियारों से सज्जित होकर घोड़े पर चढ़कर चढ़ाई करना यही तो दर्शाता है |
विवाह के अनुष्ठान का वर और कन्या की कुंडली मिलान के साथ श्रीगणेश होता है |भावी दम्पति का जीवन सुखमय और निर्विघ्न हो इसलिए ज्योतिषीय मान्यताओं के अनुरूप वर और कन्या की कुंडली मिलाई जाती है |लेकिन अनेक बार वर और कन्या में ज्योतिषीय अनुरूपताओं के बावजूद उनका वैवाहिक जीवन असंतोषपूर्ण और असफल होता है अथवा निर्दोष विवाह मुहूर्त होने पर भी प्राकृतिक या मानवीय बाधाएँ उपस्थित हो जाती हैं |इसके विपरीत ऐसे अनेक उदाहरण हैं जिनमें विना कुंडली मिलाये या विना शुभ मुहूर्त के संपन्न हुए विवाह पूर्ण सफल रहे हैं और उनके बीच तालमेल की कोई कठिनाई नहीं आई |बहरहाल सुखी और सफल दाम्पत्य जीवन के लिए ज्योतिषीय अनुरुपताओं की निर्णायकता और प्रभावकारिता वैज्ञानिक रूप से प्रमाणित नहीं है |लेकिन यदि विवाह निश्चित करते समय विवाहर्थियों के स्वास्थ्य सम्बन्धी पहलुओं को दृष्टिगत रखा जाये तो यह भावी दम्पति के लिए अवश्य लाभप्रद होगा |
वर पक्ष और कन्या पक्ष दोनों के संतुष्ट और सहमत होने पर विवाह का पहला चरण पूरा होता है और दूसरे सोपान के रूप में लग्नोत्सव का कार्यक्रम होता है जिसमें कन्या पक्ष द्वारा लग्न पत्रिका वर पक्ष को प्रेषित की जाती है |इसमें वैवाहिक अनुष्ठान का पूरा समयबद्ध विवरण समाहित रहता है और जो इस अनुष्ठान के शुभारम्भ की औपचारिक घोषणा भी होती है |
पुराने समय में जब न मशीनी आटा चक्की थी और न गैस से संचालित होने वाले चूल्हे थे ,एक बड़े समूह के लिए भोजन का प्रबंध करना निश्चय ही एक कठिन और चुनौती भरा कार्य था |इसलिए सहकार के आधार पर इस चुनौती से निपटा जाता था |चूँकि खाना बनाने के वास्ते बड़े-बड़े चूल्हे बनाने के लिए काफी मात्रा में मिट्टी की आवश्यकता होती थी इसलिए विवाहार्थी पक्ष और उनकी सम्बन्धी व मित्र महिलाएं इस कार्य हेतु मिट्टी लाने के लिए गाँव के किसी उपयुक्त स्थान पर सामूहिक रूप से जाती थीं और गाते-बजाते हुए समारोहपूर्वक इस कार्य को संपन्न करती थीं ,जो 'मटियाने की रस्म' कहलाती है |इसी प्रकार आटा पीसने का कार्य भी सहकार के आधार पर होता था, जिसमें सभी सम्बन्धी और मित्र महिलाएं हाथ बाँटती और श्रम-परिहार के लिए मंगलगीत गाते हुए इस चुनौती भरे कार्य को पूरा करती थीं |चूँकि यह एक समयसाध्य कार्य था इसलिए विवाहार्थी पक्ष द्वारा आगंतुक महिलाओं के लिए स्वल्पाहार की व्यवस्था की जाती थी जो चबैना कहलाता था और जो सामान्यतः अंकुरित चना (बिल्हा) होता था |भले ही आज यह सारा कार्य बिजली से चलने वाले उपकरणों की मदद से सहजता से हो जाता है लेकिन सहकार की वह दुर्लभ सामाजिक भावना लुप्त होती जा रही है,जो हमारी सबसे बड़ी विशिष्टता रही है |आज इन रस्मों को उनके औचित्य और उपयोगिता को समझे विना महज लकीर पीटने के लिए ही निभाया जाता है |
हल्दी और मेहंदी की रस्मों का उद्देश्य वर और कन्या के रूप-सौन्दर्य को निखारना और उनके व्यक्तित्व में चार चाँद लगाना है |ये महज रस्में नहीं हैं बल्कि इन्हें निभाते समय जो प्यार और अपनापन छलकता है ,वह अतुलनीय है |आज पेशेवर सौन्दर्य-विशेषज्ञ इस कार्य के लिए बुलाये जाते हैं लेकिन उसमें भावनाओं की वह अनूठी मिठास कहाँ होती है ?
वर और कन्या दोनों पक्षों में मंडप-आच्छादन का कार्यक्रम होता है |मंडप वह निर्दिष्ट स्थान होता है जहाँ पर इस अनुष्ठान से जुड़ीं सभी प्रमुख रस्में पूरी की जाती हैं | इसका निर्माण में लकड़ी के चार खम्भों और आच्छादन के लिए कांस या घास-फूस का उपयोग होता है |वर पक्ष के यहाँ मंडप के मध्य में एक स्तम्भ पर दीपाधार लगा रहता है जिस पर दीपक प्रज्वलित कर रखा जाता है और जो घर में हर्षोल्लास के आगमन का प्रतीक होता है |कन्या पक्ष के यहाँ मंडप के चारों खम्भों के सहारे मिट्टी के सात-सात कलश रखे जाते हैं जो आम के पत्तों से सुसज्जित रहते हैं |जिन्हें चौरी कहते हैं ,स्थान भेद से इसके लिए अन्य नाम भी प्रचलित हो सकते हैं |मिट्टी के ये सुसज्जित कलश संपन्नता का प्रतीक होते हैं |सप्तपदी के समय जब वर-कन्या मंडप की प्रदक्षिणा करते हैं ,हल्दी में रंगा कच्चा सूत(कलावा)उसके चारों ओर लपेटा जाता है |जो कच्चे सूत की तरह नाजुक वैवाहिक रिश्ते को यत्नपूर्वक और सावधानी से सहेजने-सँभालने के गहरे अर्थ को अपने भीतर समेटे होता है |
विवाहार्थी पक्ष के सभी निकट सम्बन्धियों के कपड़ों पर हल्दी रँगे दोनों हाथों की छाप लगाई जाती है |यह एक पहचान-चिन्ह है जो विवाहार्थी पक्ष से उनकी निकटता दर्शाता है |पाणिग्रहण के दिन एक महत्वपूर्ण रस्म वर-कन्या के मामा पक्ष द्वारा पूरी की जाती है जो भात,चीकट या पहरावनी के नाम से जानी जाती है ,जिसमें भाई(भतैया)अपनी बहिन (यथास्थिति ,वर या कन्या की माँ )को भात(चावल)भेंट करता है ,जिसे खाकर वह अपना उपवास तोड़ती है |इस अवसर पर भतैया अपनी बहिन,बहनोई और उनके परिजनों को यथाशक्ति वस्त्र-आभूषण भेंट करता है जो इस पावन कार्य के संपादन में उनके सहयोग का विवक्षित आश्वासन होता है |
पाणिग्रहण के समय वर पक्ष कन्या(दुल्हन)के श्रृंगार के निमित्त जो सौभाग्य -सामग्री ले जाता है उसमें लकड़ी का बना सिंदूरदान(सिंदरोटा)प्रमुख होता है |यह सिंदरोटा ही अब सिन्दोरी-सिंदोरा कहलाने लगा है |इसी अवसर पर जल के देवता वरुण की पूजा के लिए मिट्टी के एक सुसज्जित कलश(बरौना) में सात प्रकार की सामग्री रखकर वर पक्ष ले जाता है जो बाद में नदी या तालाब में विसर्जित कर दी जाती है |बरौना की यह रस्म वैदिक देवता वरुण को प्राचीन काल में मिलने वाले महत्व को प्रमुखता से दर्शाती है |
विवाह से जुड़ी एक दिलचस्प रस्म धान-बुबाई की रस्म है |जिसमें मंडप के नीचे कन्या पक्ष के किसी दम्पति द्वारा भावी दम्पति की सुख-समृद्धि की कामना , वर-वधू की प्रदक्षिणा करते हुए चारों ओर धान बिखेरकर की जाती है |यह वास्तव में एक प्रतीकात्मक तांत्रिक अनुष्ठान है |
पुराने समय में आवागमन के आधुनिक साधनों के आभाव में बैलगाड़ियाँ यात्रा सबसे सुलभ साधन थीं |चूँकि बैलगाड़ियों से यात्रा पूरी करने में काफी समय बीतता था इसलिए कन्या-पक्ष द्वारा वर-वधू और बारातियों(वर-यात्रियों )के लिए पाथेय(रास्ते के लिये नाश्ता ) साथ रखा जाता था |ये पाथेय सभी जगहों पर सहजता से सुलभ बांस से बने बड़े टोकरों में रखा जाता था |आज यह समूचा परिदृश्य बदल चुका है लेकिन बांस के बने टोकरे ,पंखे इत्यादि देने का चलन बदस्तूर जारी है |
दूल्हा-दुल्हन शब्द बड़े ही अर्थ-गंभीर हैं जो संस्कृत के दुर्लभ शब्द से विकसित हुए हैं | दूल्हा ,दुल्हन की तलाश में कितना श्रम करना पड़ता है और कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं ,यह तो कोई भुक्तभोगी ही जान सकता है | बड़े संघर्षों के बाद कहीं हाथ पीले हो पाते है |दुल्हे का दुल्हन के घर हथियारों से सज्जित होकर घोड़े पर चढ़कर चढ़ाई करना यही तो दर्शाता है |